Tuesday 29 December 2015

श्रीजयदेव गोस्वामी विरचित
श्रीगीतगोविन्दम
दशावतार खण्ड
श्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजीके अनुगृहीत

त्रिदण्डिस्वामी
श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित
                                          एवं
डॉ विनय कुमार श्रीवास्तव द्वारा संकलित

12वीं शताब्दी के कवि जयदेव द्वारा रचित गीतगोविन्द 12 अध्यायों वाला एक गीतिकाव्य है जिसे प्रबंध कहे जाने वाले चौबीस भागों में विभाजित किया गया है । प्रथम अध्याय में चार परिचयात्मक श्लोक हैं, जिनके बाद दशावतार वर्णन के रूप में ग्यारह अष्टपदी हैं जो भगवान विष्णु के दस अवतारों के उद्देश्यों का वर्णन करते हैं और अंत में रचना के निर्बाध समापन के लिए समर्पण किया गया है। इसके बाद एक अन्य अष्टपदी आती है जहां कृति के नायक की प्रशंसा की गई है। यहां लेखक ने संकेत किया है कि यह अष्टपदी मंगलम, अर्थात कल्याणकारी श्लोक है । इन अष्टपदियों को विभिन्न ललित रागों के जरिए संगीत से सजाया जा सकता है जिनकी परवर्ती कवियों द्वारा सराहना की गई और उनका अनुसरण भी किया गया ।

प्रलय पयोधि जले धृतवान् असि वेदम् | विहित वहित्र चरित्रम् अखेदम् ||
केशव धृत मीन शरीर जय जगत् ईश हरे ||  १ ||

अनुवाद - हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेदके सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तुका उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रमके निर्मल चरित्रके समान प्रलय जलधिमें मत्स्यरूपमें अवतीर्ण होकर वेदोंको धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो || १ ||

व्याख्या - श्रीराधामाधवकी लीलामाधुरीकी सर्वोत्कर्षताका वर्णन करना ही कवि जयदेवको अभिप्रेत है। वे ग्रन्थके आरम्भमें प्रलयपयोधिजलेश्लोकसे लेकर इस अष्टपदीके अन्ततक समस्त अवतारोंके मूल आश्रय-स्वरूप अखिल नायक शिरोमणि श्रीकृष्णके मत्स्यादि अवतारोंका वर्णन कर रहे हैं।
इसके प्रथम पदमें श्रीभगवानके लिए चार सम्बोधन हैं। पहला सम्बोधन है केशव। भगवानको कई कारणोंसे ‘केशव कहा जाता है
(१) वराहवतारमें भगवानके जो बाल गिरे, वे कुश रूपमें अंकुरित हुए। वेद-विहित यज्ञादि क्रियाकलापोंमें कुशकी आवश्यकता होती है। बिना कुशके वे कार्यकलाप सम्पन्न नहीं होते । इसलिए भगवान् केशव कहलाये ।
(२) ‘केशाद्वोऽन्यतरस्याम’ -- इस पाणिनीय सूत्रके अनुसार केश शब्दसे प्रसिद्ध अर्थमें प्रत्यय होकर केशव शब्द बनता है।
(३) श्रीभगवानके द्वादश व्यूहोंमें केशव-व्यूह’ का सर्वप्रथम स्थान है।
(४) इस केशव’ नामकी व्याख्या करते हुए भगवनद्रुण दर्पणकार कहते हैं –‘प्रशस्तस्निग्धनीलकुटिलकुन्तलःअर्थात् ‘केशव’ - यह भगवानका नाम उन भगवानके प्रशस्त काले और घुँघराले बालोंवाला बतलाता है।
(५) ‘केशवः - को ब्रह्मा ईशश्च तावपि वयते प्रशस्तीति अर्थात् क- ब्रह्मा, ईश - महादेव दोनोंके नियामक या शासकको केशव कहते हैं।
(६) केशान् वयतेगोपियोंके केश-संस्कार करनेवाले रसिकशेखर श्रीकृष्ण ही ‘केशव’ कहलाते हैं।
(७) केशी नामक दैत्यका संहार करनेवाले केशव हैं।
‘धृतमीनशरीर’ - यह भगवानका दूसरा सम्बोधन है। श्रीभगवान् सन्तजनोंके परित्राण और पापियोंके विनाश हेतु विविध रूपोंमें अवतरित होते हैं। उनके असंख्य अवतारोंमेंसे दश प्रधान हैं। उन दश अवतारोंमें मत्स्यावतार सर्वप्रथम अवतार है। इस अवतारमें श्रीभगवानने वेदोंके अपहरणकत्र्ता हयग्रीवका बधकर वेदोंका उद्धार किया था। ये मीन अवतार वीभत्स रसके अधिष्ठाता हैं।
‘जगदीश ’- इस तीसरे सम्बोधनका अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान् सम्पूर्ण जगत् और प्रकृतिके ईश्वर हैं। वे सम्पूर्ण जगतकी सृष्टि, स्थिति एवं पालनका नियमन करते हैं तथा जगतके भीतर अन्तर्यामी रूपमें स्थित होकर उसका नियमन करते हैं। जगदीश शब्दसे भगवानकी करुणा भी प्रकट होती है।
‘हरे’ - इस चतुर्थ सम्बोधनका तात्पर्य यह है कि भगवान् भक्तोंके अशेष प्रकारके कष्टोंको हरण करनेवाले हैं – हरति भक्तानां क्लेशम् । इसी हेतु उनका अवतार होता है।
इन चार सम्बोधनोंके द्वारा कविराजने श्रीभगवानके प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित किया है।
जय, अर्थात् हे प्रभो ! आप अपने उत्कर्षका आविष्कार करनेमें सिद्धहस्त हैं, आप इस उत्कर्षको प्रकट करें। जय जगदीश हरे - यह पंक्ति प्रत्येक पदके साथ आवृत्त करके गायी गई है, अतएव इसे ध्रुव-पद कहा जाता है – ‘ध्रुवत्वाच्च ध्रुवो ज्ञेयः। यह ध्रुव-पद अन्तमें प्रयुक्त होता है।
इस अष्टपदीमें भगवान् श्रीकेशवके मत्स्यावतारके चरित्रका वर्णन किया गया है। इस प्रथम अवतारमें श्रीकृष्णने प्रलयकालीन महासागरके अगाध जलमें वेदोंको धारण किया तथा स्वयं अपने सींगसे नौकाको ग्रहण करके उसमें सम्पूर्ण प्रकारके बीजों तथा मनु सहित सप्तऋषियोंको प्रलयकाल तक धारण कर बिना प्रयासके ही उनका वहन करते हुए उनकी रक्षा की। इस अवतारमें उन्होंने सत्यव्रत मुनिकी भी रक्षा की थी। अतएव मत्स्यावतारधारी भगवान् केशवकी जय हो ।
प्रस्तुत पदमें उर्ध्वमागधी रीति, उपमा और अतिशयोक्ति अलंकार उत्साह नामक स्थायी-भाव तथा वीररस है। मत्स्यावतारको वीभत्स रसका अधिष्ठाता भी कहा गया है || १ ||

क्षितिः अति विपुल तरे तव तिष्ठति पृष्ठे | धरणि धरण किण चक्र गरिष्ठे  ||                  
केशव धृत कच्छप रूप जय जगदीश हरे || २ ||

अनुवाद - हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठके एक प्रान्तमें पृथ्वीको धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रणके चिन्होंसे गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो || २ ||


व्याख्या - अष्टपदीके द्वितीय श्लोकमें श्रीभगवानके कच्छपावतारका वर्णन किया है। आपने इस पृथ्वी (मन्दराचल)
को मात्र आकर्षित ही नहीं किया अपितु अपनी पीठपर धारण करते हुए स्थापन किया है। कच्छपावतार धारण करके श्रीभगवान् पृथ्वीके नीचे विद्यमान हैं और पृथ्वीकी अपेक्षा अत्यधिक विशाल उनके पृष्ठपर यह भूमण्डल एक गेंदकी भाँति अवस्थित है।
पृथ्वीके धारण करनेसे उनके पृष्ठपर घाव-चिन्ह जाल-सा बन गया है। यह व्रण-चिन्ह-जाल आपका अलंकार ही है। आपकी जय हो।
जय जगदीश हरे! मुखबन्धकी भाँति यह सम्पुट सम्पूर्ण अष्टपदीसे संयोजित है || २ ||

वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना | शशिनि कलंक कल इव निमग्ना ||
केशव धृत सूकर रूप जय जगदीश हरे || ३ ||

अनुवाद - हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंकके सहित सम्मिलित रूपसे दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है || ३ ||

व्याख्या - अष्टपदीके तृतीय पदमें भगवानकी स्तुति की गयी है। भगवान् पृथ्वीको धारण करते हैं, इतना ही नहीं, समस्त चराचरको धारण करनेवाली पृथ्वीको अपने दाँतोंपर अवस्थित कर चलते भी हैं। सृष्टिके प्रारम्भमें हिरण्याक्ष जब बीजभूता पृथ्वीका अपहरण करके रसातलमें चला गया था, तो श्रीभगवानने वराहरूप धारण किया और प्रलयकालीन जलके भीतर प्रविष्ट होकर अपने दाँतोंके अग्रभागपर पृथ्वीको उठाकर ऊपर ले आये तथा अपने सत्यसप्रल्परूपी योगबलके द्वारा उसे जलके ऊपर स्थापित किया । जिस समय भगवान् अपने दाँतोंके अग्रभागपर पृथ्वीको उठाकर ला रहे थे, उस समय उनके उज्ज्वल दाँतोंके ऊपर पृथ्वी ऐसे सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार चन्द्रमाके भीतर उसके बीचमें उसकी कालिमा सुशोभित होती है। कविने भगवानके दाँतोंको बालचन्द्रमाकी उपमा देकर उनके दाँतोंके महदाकारत्व तथा धरणीके अल्पाकारत्वको सूचित किया है। धरणी कलप्र कलावत् निमग्ना है । निमग्न शब्दसे वराहदेव भयानक रसके अधिष्ठाता रूपमें प्रकाशित होते हैं। इस पदमें उपमा अलंकार है। हे शूकररूप धारिण ! आपकी जय हो || ३ ||

तव कर कमल वरे नखम् अद्भुत शृंगम् | दलित हिरण्यकशिपु  तनु भृंगम् ||
केशव धृत नर हरि रूप जय जगदीश हरे || ४ ||

अनुवाद - हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ करकमलमें नखरूपी अदभुत श्रृंग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपुके शरीरको आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्पका विदारण कर देता है, आपकी जय हो || ४ ||

व्याख्या - चौथे पद्यमें श्रीजयदेवजीने नृसंहावतारके रूपमें भगवानका स्तवन किया है। दुःखकातर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कष्ट स्वीकार कर लेते हैं, पर दूसरोंका दुःख सहन नहीं कर पाते । दितिपुत्र हिरण्यकशिपुने अपने पुत्रमहाभागवत प्रह्लादपर अत्याचार किया तो भगवानके नृसंह वेशमें उस महादैत्यके वक्षःस्थलको निज नखसे विदीर्णकर उनकी रक्षा की । हे नरहरि रूप धारण करनेवाले केशव ! आपके श्रेष्ठ करकमलमें नख समुदाय एक श्रेष्ठ कमलके अग्रभागके समान हैं, उनमें अति तीक्ष्णता है। यह नख समुदाय अति अदभुत, पहाड़की चोटीके समान अति आश्चर्यजनक है। कमलाग्ररूप इन नखोंका यह वैशिष्ट्य है कि अन्य कमलके अग्रभागोंको तो भ्रमर विदीर्ण करते हैं, परन्तु आपके करकमलोंके अग्रभागने तो दैत्यरूपी भ्रमरका ही दलन कर दिया है। विश्वकोषमें श्रृंग शब्दका अर्थ बजाने वाला विषाण, उत्कर्ष एवं अग्रभाग है। भ्रमरके उदाहरणसे कृष्ण-वर्णत्वको भी सूचित किया गया है। यह रूपक अलंकार है। श्रीनृसंह रूपको वात्सल्यरसका अधिष्ठान माना जाता है || ४ ||

छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत वामन | पद नख नीर जनित जन पावन ||
केशव धृत वामन रूप जय जगदीश हरे || ५ ||

अनुवाद - हे सम्पूर्ण जगतके स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! हे केशव! आप वामन रूप धारणकर तीन पग धरतीकी याचनाकी क्रियासे बलि राजाकी वंचना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिलसे पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो || ५ ||

व्याख्या - पाँचवे पद्यमें वामनदेवकी स्तुति की गयी है। राजा बलिकी यज्ञशालामें जाकर आपने भिक्षाके छलसे त्रिविक्रमरूप धारणकर ऊपर नीचेके समस्त लोक नाप लिये हैं । छलयसि - इसमें वर्तमान कालिक क्रियापदका प्रयोग है, अर्थात् बलिको अपने वरदानसे अनुग्रहीतकर उसके साथ पातालमें निवास करते हैं और अनादि कालसे ही अदभुत वामन बनकर उसे छला करते हैं। पदनख नीर जनित जन पावनसे तात्पर्य है कि उन्होंने अपने पद-नखोंसे श्रीगंगाको यहाँ प्रकटकर समस्त संसारको पावन किया है। ब्रह्माजीने पृथ्वी नापते समय भगवानके चरणोंको ब्रह्मलोकमें देखकर अर्घ्य चढ़ाया। वही जल श्रीगंगाजीके रूपमें परिणत हो गया। आपकी जय हो। इस पद्यमें अदभुत रस है, यहाँपर श्रीभगवान् सख्य रसके अधिष्ठाता रूपमें प्रकाशित हुए हैं || ५ ||

क्षत्रिय रुधिरमये जगत् अपगत पापम् | स्नपयसि पयसि शमित भव तापम् ||
केशव धृत भृघु पति रूप जय जगदीश हरे || ६ ||

अनुवाद - हे जगदीश! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुलका विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिलसे जगतको पवित्र कर संसारका सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन् , आपकी जय हो || ६ ||

व्याख्या - छठवें पद्यमें श्रीपरशुराम अवतारकी स्तुति की है,  हे प्रभो ! भृगुपतिरूप धारणकर आपने एकबार नहीं, इकतीस बार ब्राह्मणविद्वेषी क्षत्रियोंका विनाशकर उनके रुधिरसे निर्मित सरोवरको कुरुक्षेत्रका ह्रद तीर्थ बना दिया है,
जिसमें स्नान करनेसे समस्त जगतके प्राणियोंके पापोंका मोचन होता है और संसारके समस्त तापोंसे मुक्ति मिलती
है। ज्ञानकी उत्पत्ति होनेसे उत्तापोंकी शान्ति होती है। प्रस्तुत पदमें स्वाभाविकोक्ति अलंकार तथा अदभुत रस है। परशुराम अवतारको रौद्र रसका अधिष्ठाता माना जाता है। यहाँतक छह पद्योंके नायकको धीरोद्धत नायक कहा जाता है || ६ ||

वितरसि दिक्षु रणे दिक् पति कमनीयम् | दश मुख मौलि बलिम् रमणीयम् ||
केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे || ७ ||

अनुवाद - हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने रामरूप धारण कर संग्राममें इन्द्रादि दिक्पालोंको कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावणके किरीट भूषित शिरोंकी बलि दशदिशाओंमें वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो || ७ ||

व्याख्या - सातवें पद्य में श्रीराम-स्वरूपका वर्णन हुआ है | हे प्रभो ! प्रिया वियोगादि दुःखको सहन करने के लिए आप रघुकुल तिलक श्रीराम रूपमे अवतरित हुए | भयानक संग्राम में संसारको रुलानेवाले रावनके दश मस्तकों को अनंतकालके लिए समर्पित कर दिया है अर्थात् रावनके शिरोंको काटकर श्रीभगवानने दिक्पालोंको बलि चढ़ाया जिससे कि संसारमे राक्षसों के द्वारा बढे हुए उत्पातों की शान्ति हो जाए |
       दिक्पालों को रावणकी बलि अत्यंत अभीष्ट थी | रावणका वध हो जानेसे यह बलि लोकाभिराम बनी | इस बात को जयदेव कविने ‘दिक्पति कमानीयम’ एवं ‘रमणीयं’ इन दो पदों के द्वारा अभिव्यक्त किया है | दिक्पालों की संख्या दश है तथा रावण के किरीट मण्डित शिरोंकी संख्या भी दश ही है | यही कारण है कि दिक्पालोंको यह बलि अत्यन्त कमनीय थी |
       दूसरोंको उद्वेग देनेवाले रावणका संहारकर भगवानने जगतमें सभीका आनंदवर्धन किया है |
इस पदके नायक धीरोदत्त हैं | भगवानके राम अवतारमें करुण रसका प्रकाश होता है |
       दशमुख मौलि बलिम --- इस पदकी वुत्पत्ति दशमुखस्य ये मौलया तान्येव बलिम अर्थात रावणके किरीट मण्डित शिर ही बलि हैं | यद्यपि मौली शब्द शिर और किरीट दोनों का वाचक है तथापि मौलि मंडित शिर यह अर्थ तटस्थ लक्ष्मण के द्वारा स्वीकार किया जाता है || ७ ||

वहसि वपुषि विशदे वसनम् जलद अभम् | हल हति भीति मिलित यमुनआभम् ||
केशव धृत हल धर रूप जय जगदीश हरे || ८ ||

अनुवाद - हे जगत् स्वामिन् ! हे केशिनिसूदन! हे हरे ! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघोंकी शोभाके सदृश नील वस्त्रोंको धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हलके प्रहारसे भयभीत होकर आपके वस्त्रमें छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! आपकी जय हो || ८ ||

व्याख्या - आठवें पदमें भगवानके हलधारी श्रीबलराम-स्वरूपकी स्तुति की जा रही है। विशद वपु--बलरामजीका वर्ण गौर है, वे शुभ्र हैं ।
जलदाभ--बलरामजी नील हरित वर्णका वस्त्र धारण करते हैं। जलसे भरे कृष्णवर्णके मेघको जलद कहते हैं । जलदस्य आभा--श्यामा यस्य तम्--यह जलदाभ पदका विग्रह है। जलद कृषकको जिस प्रकार आनन्दित करता है, उसी प्रकार बलरामजीके वस्त्र भक्तोंको आनन्द प्रदान करते हैं ।
हलहतिभीति मिलित यमुनाभम्--हलेन या हतिः तद् भीत्या मिलिता या यमुना तस्या आभा इव आभा यस्य तत् । भगवान् केवल प्रिया-वियोगादि-दुःख सहन  नहीं कर पाते, ऐसा नहीं है। आपने प्रेयसीके श्रमरूप क्लेशको दूर  करने हेतु अपनी प्रिय भक्त यमुनाजीको आकर्षित किया है। आपके शुभ्र कान्ति विशिष्ट श्रीअंग धारण किये हुए नील वसनोंसे ऐसा लगता है मानो आपके हलके प्रहारसे भयभीत होकर यमुनाजी आपके नीले सुरम्य वस्त्रोंमें समा गयी हैं । प्रस्तुत पदके नायक श्रीबलरामजी धीर ललित नायक हैं। इन्हें हास्य रसका अधिष्ठाता माना जाता है ||८||

निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम् | सदय हृदय दर्शित पशु  घातम् ||
केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे || ९ ||

अनुवाद - हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओंकी हिंसा देखकर श्रुति समुदायकी निन्दा की है। आपकी जय हो || ९ ||

व्याख्या - नवें पदमें भगवानके बुद्धावतारकी स्तुति की जा रही है। वेद श्रीभगवानके श्वासस्वरूप हैं ‘तस्य निःश्वसितं वेदाः’ | वेदोंको स्वयं भगवानकी आज्ञास्वरूप माना जाता है। वेद शास्त्रोंमें जब विरोधी मत अर्थात् वेदोंके विरुद्ध विचार धाराएँ बढ़ने लगीं, तब आपने बुद्धावतार ग्रहण किया ।
यह प्रश्न होता है कि स्वयं यज्ञ विधिको बनाकर फिर यज्ञ विधायिका श्रुतियोंकी क्यों निन्दा की, अत्यन्त
आश्चर्यकी बात है कि स्वयं ही वेदोंके प्रकाशक हैं और स्वयं ही वेदोंकी भत्र्सना कर रहे हैं।
इसके उत्तरमें सदय हृदय दर्शित पशुघातम् अर्थात् आपने पशुओंके प्रति दयावान् होकर अञहसा परमो धर्मः’, यह उपदेश प्रदानकर दैत्योंको मोहित किया है। आपने जैसे अमृतकी रक्षा करनेके लिए दैत्योंको मोहित किया था, उसी प्रकार प्राणियोंकी रक्षा करनेके लिए आपने दैत्योंको मोहितकर यज्ञोंको अनुचित बतलाया है।
यज्ञमें की जानेवाली पशुओंकी ञहसाको देखकर श्रीभगवानके हृदयमें दया प्रसूत हुई और दया विवश होकर अपने इस अवतारमें यज्ञ प्रतिपादक वेद शास्त्रोंकी निन्दा की ।
इस पदके नायक धीर शान्त हैं। भगवान् बुद्धको शान्त रसका अधिष्ठाता माना गया है || ९ ||

म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम् | धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||
केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे || १० ||

अनुवाद - हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || १० ||

व्याख्या - दशवें पदमें भगवानके कल्कि अवतारकी प्रशंसा की जा रही है। बिना युद्ध किये प्राणियोंका संहार नहीं होगा, बिना संहार किये शान्ति भी नहीं आयेगी । इसलिए आप कल्कि रूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हैं । दुष्ट मनुष्योंका संहार करनेके लिए भगवान् भयंकर काल कराल रूप तलवारको धारण करते हैं । ‘किमपि पदसे कवि द्वारा कृपाणकी भयंकर स्वरूपता दिखाई है।
धूमकेतुमिव-- धूमकेतु एक ताराविशेषका नाम है । जिसके उदित होनेपर महान उपद्रवकी शंका की जाती है। भगवानका कृपाणरूपी धूमकेतु म्लेच्छोंके अमंगलका सूचक है। धूमकेतु शब्द अग्निका भी वाचक है, जिससे म्लेच्छ समुदायका अनिष्ट सूचित होता है ।
प्रस्तुत पदके नायक धीरोद्धत हैं। कल्कि भगवानको वीर रसका अधिष्ठाता माना जाता है || १० ||

श्री जयदेव कवेः इदम् उदितम् उदारम् | शृणु सुख दम् शुभ दम् भव सारम् ||
केशव धृत दश विध रूप जय जगदीश हरे || ११ ||

अनुवाद - हे जगदीश्वर ! हे श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! हे दशबिध रूपोंको धारण करनेवाले भगवन् ! आप मुझ जयदेव कविकी औदार्यमयी, संसारके सारस्वरूप, सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुतिको सुनें || ११ ||

व्याख्या - इस प्रकार दशावतार स्तुतिके अन्तमें महाकवि जयदेव प्रत्येक रसके अधिष्ठान स्वरूप एक-एक अवतारका जयगान कर अब समस्त रसोंके अधिनायक श्रीड्डष्णसे निवेदन करते हैं कि हे दशविध स्वरूप ! आपकी जय हो ।
सुखद-सद्यः परनिवृत्तिकारक होनेके कारण यह स्तुतिकाव्य श्रवणकालमें ही परमानन्द प्रदान करनेवाला है। यह स्तोत्र जगन्मंगलकारी है जो कि आपके आविर्भावके रहस्योंको अभिव्यक्त करनेवाला है ।
शुभदं-शुभदायी होनेसे परमात्माकी प्राप्तिके समस्त प्रतिबन्धकोंका विनाश करनेवाला है ।
भवसारम्--संसाररूपी सागरको पार करनेके जितने भी साधन हैं, उन सबमें प्रधान है ।
भवच्छेदक हेतु मध्ये सारम्-- यह मध्यपदलोपी समास ‘भवसारम् पदमें जानना चाहिए।
जय--वर्नमानकालिक क्रियापदके द्वारा यह सूचित होता है कि भगवानके समस्त अवतार नित्य एवं उनकी लीलाएँ भी नित्य हैं । कविने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि श्रीकृष्ण सभी अवतारोंके मूल कारण हैं । उन्हींसे सभी अवतारोंका प्राकट्य हुआ है, वे सभी रूपोंमें सत्य हैं, अतएव पूर्णावतारी, नित्य लीलाविलासी, दशावतार स्वरूप, सर्वाकर्षक एवं आनन्द प्रदाता आपकी नित्य ही जय जयकार हो। उदात्त तथा सरल भाषामें मैंने आपकी स्तुति की है । आप इसका श्रवण करें। आपका भक्त कवि जयदेव आपको यह स्तुति निवेदन कर रहा है । प्रस्तुत श्लोकमें शान्त रस तथा पर्यायोक्ति अलंकार है || ११ ||

वेदान् उद्धरते जगत् निवहते भू गोलम् उद् बिभ्रते
दैत्यम् दारयते बलिम् च्छलयते क्षत्र क्षयम् कुर्‌वते
पौलस्त्यम् जयते हलम् कलयते कारुण्यम् आतन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दश अकृति कृते कृष्णाय  तुभ्यम् नमः || १२ ||

अनुवाद - वेदोंका उद्धार करनेवाले, चराचर जगतको धारण करनेवाले, भूमण्डलका उद्धार करनेवाले, हिरण्यकशिपुको विदीर्ण करनेवाले, बलिको छलनेवाले, क्षत्रियोंका क्षय करनेवाले, पौलस्त (रावण) पर विजय प्राप्त करनेवाले, हल नामक आयुधको धारण करनेवाले, करुणाका विस्तार करनेवाले, म्लेच्छोंका संहार करनेवाले, इस दश प्रकारके शरीर धारण करनेवाले हे श्रीकृष्ण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ || १२ ||

व्याख्या - इस गीतगोविन्द काव्यके प्रथम सर्गके प्रथम प्रबन्धके दश पद्योंमें कवि जयदेवजीने भगवान् श्रीकृष्णके अवतारोंकी मनोरम लीलाओंका चित्रण किया है । दश अवतार स्वरूपको प्रकट करनेवाले श्रीकृष्णने मत्स्य रूपमें वेदोंका उद्धार किया, कूर्म रूपमें पृथ्वीको धारण किया, वराह रूपमें पृथ्वीका उद्धार किया, नृसंह रूपमें हिरण्यकशिपुको विदीर्ण किया, वामन रूपमें बलिको छलकर उसे अपना लिया, परशुराम रूपमें दुष्ट क्षत्रियोंका विनाश किया, बलभद्र रूपमें दुष्टोंका दमन किया, बुद्धके रूपमें करुणाका विस्तार किया, कल्कि रूपमें म्लेच्छोंका नाशकिया -- इस प्रकार दशविध अवतार धारण करनेवाले हे भगवान् श्रीड्डष्ण! आपको नमस्कार है || १२ ||
इति दशावतार कीर्त्तिधवलो नाम प्रथमः प्रबन्धः।
इस प्रकार प्रथम प्रबन्धमें दशावतार स्तोत्र कीर्त्तिधवल नामक छन्द है। प्रस्तुत प्रबन्धमें पारस्वर, मध्यमादि राग, आदि ताल, विलम्बित लय, माध्यमी रीति तथा श्रृंगार रस है। इसमें वासुदेव भगवानके यशका वर्णन है ||

इति श्रीगीतगोविन्दे प्रथमः सन्दर्भः।

12 comments:

  1. Bahut sundar , bahut hi sundar , aapko saadar dhanywad !

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  2. मेरी आत्मा को छूता हुआ!

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  3. आपकी भावनाओं से मन कृतार्थ हुआ।

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  4. बहुत सुंदर। मैं बहुत दिनों से हिन्दी में खोज रहा था मगर आज मिला।

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  5. बहुत सुंदर बहुत सुंदर बहुत सुंदर जय जय श्री राधे श्याम जय हो प्रभु आपकी जय हो बहुत ही सुंदर बहुत ही सुंदर कृति

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  6. जय श्री नारायण

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  7. हे केशव! कल्कि अवतार में आने का समय आएगा?

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  8. कृष्ण भगवान की जय..🙏🙏

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  9. How long is it - Titanium Stars
    Titanium Stars is a game developed by Sega titanium trim as seen on tv for the Mega titanium rod in femur complications Drive/Genesis. Players play dental implants as a robot, an astronaut, and titanium tube a team babyliss pro nano titanium straightener of space junkers.

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